किसानों से एक रुपये किलो के भाव खरीदा प्याज, आम आदमी को 80 रुपया किलो, आखिर क्यों?



जनसंदेश न्यूज़

नई दिल्ली। पूरे भारत में इन दिनों प्याज जनता का खुब आंसू निकाल रहा है। आम आदमी के जेब ढ़ीली करने वाले प्याज के दामों में अचानक बढ़ोत्तरी से घर का बजट बिगड़ गया है। एक तरफ कोरोना की मार तो दूसरी तरफ बढ़ती महंगाई ने लोगों के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी है। लेकिन आपने कभी सोचा है कि हर साल प्याज का रेट इतना हाई क्यों हो जाता है?

महज पांच महीने पहले किसानों द्वारा महज एक रुपये किलो के भाव बिकने वाला प्याज आज आम आदमी को 70-80 रुपये किलो मिल रहा है। आपको बता दें कि प्याज का दाम 19 मई को महज 1 रुपये किलो था, तेलंगाना में तो उससे भी कम मात्र 59 पैसे की रेट से बिका था। लेकिन आज जमाखोरी का ऐसा खेल चला कि इसकी चोट सीधे आम आदमी को पहुंच रही है। कोरोना की मार से खस्ताहाल हुए लोगों को अब महंगाई खून के आंसू रुला रहा है।  

अब सवाल उठता है कि जब किसान अपनी उपज बेच रहे थे तो मार्केट में दाम नहीं था। वहीं अब व्यापारी बेच रहे हैं तो दाम आसमान पर है। आखिर हर साल यह चमत्कार कैसे होता है? इसके पीछे आखिर कौन लोग जिम्मेदार हैं? किसानों के हक और जनता की जेब पर डाका कौन डाल रहा है?

जैसा कि आप जानते है कि महंगाई बढ़ाने में टमाटर, प्याज, आलू का बड़ा योगदान होता है। आम आदमी को लगता है कि बारिश के कारण सही उपज नहीं होने से यह हाल हुआ है। ‘टॉप’ का एक बड़ा रैकेट भी भोलीभाली आम जनता को यहीं समझाता है कि उपज नहीं होने से सामानों का रेट हाई हो गया है। कई बार लोग इसके लिए किसान को ही जिम्मेदार मान बैठते हैं। पर सच्चाई यह है कि महंगाई बढ़ाने के लिए किसान कभी जिम्मेदार नहीं होता। 

दाम को चढ़ाने-उतारने वाला कोई और होता है। मोटी रकम और बड़े-बड़े गोदामों वाले ये माफिया किसानों की उपज के लिए भंडारण का पर्याप्त इंतजाम नहीं होने देते। राष्ट्रीय किसान संघ के फाउंडर मेंबर बीके आनंद कहते हैं कि किसानों को सब्जियों का जो पैसा मिलता है और उसमें और उपभोक्ताओं को मिलने वाले रेट में पांच से आठ गुना का अंतर होता है। 

दरअसल, दाम बढ़ाने वाले ऐसे लोग होते हैं जिन्हें व्यवस्था का संरक्षण हासिल होता है। इसलिए कोई उन पर कार्रवाई नहीं कर सकता। अगर शहर में आपको कोई कृषि उत्पाद महंगा मिल रहा है तो इसका मतलब यह कतई नहीं है कि किसान कमाई कर रहा है, बल्कि इसका मतलब यह है कि भंडारण और सप्लाई चेन की गड़बड़ियों की वजह से बिचौलिया बेहिसाब मुनाफा कमा रहा है।



कुछ बड़ी मंडियों में पांच महीने पहले प्याज की रेट

तेलंगाना की सदाशिवपेट मंडी में 19 मई को प्याज का न्यूनतम रेट 59 पैसे प्रति किलो था।

महाराष्ट्र की लोणंद मंडी में 19 मई को इसका न्यूनतम रेट 1 रुपये और अधिकतम 6.51 पैसे किलो था।

महाराष्ट्र की धुले मंडी में 5 मई को लाल प्याज का न्यूनतम दाम 150 रुपये क्विंटल था।

महाराष्ट्र की धुले मंडी में ही 9 और 13 मई को प्याज 100 रुपये प्रति क्विंटल यानी 1 रुपये किलो बिका।

महाराष्ट्र की नासिक मंडी में 12 मई को प्याज का न्यूनतम दाम 350 और 14 मई को 351 रुपये प्रति क्विंटल था।

आपको बता दें कि देश में प्याज का सबसे अधिक उत्पादन महाराष्ट्र में किया जाता है। प्याज एक ऐसी फसल है, जिसकी जमाखोरी जमकर की जाती है। व्यापारी किसानों से अधिकतम 10-12 रुपये किलो के रेट पर पूरे खेत का सौदा कर लेते हैं। इसके बाद नासिक से लेकर दिल्ली तक छोटे-छोटे शहरों में इसकी जमाखोरी करके दाम बढ़वा देते हैं। फसल तैयार होते ही किसानों को बेचना पड़ता है, क्योंकि जिस कर्ज को लेकर वें फसल का उत्पादन किये होते हुए उसे लौटाने की चिंता भी सता रही होती है। जिसका फायदा व्यापारी उठाते है। 



बारिश पर दोषारोपण बेमानी

प्याज की महंगाई के लिए बारिश को दोष देना कुल लोगों का रूटीन बन गया है। इसको लेकर कृषि अर्थशास्त्री देविंदर शर्मा का कहना है कि महाराष्ट्र की लासलगांव मंडी में प्याज की आवक सितंबर के महीने में 38 फीसदी ज्यादा थी। पूरे महाराष्ट्र में यह करीब 57 फीसदी ज्यादा थी। इसके बाद भी दाम बढ़ने का कोई मतलब नहीं है। दरअसल, प्याज का दाम बारिश के कारण नहीं बल्कि कालाबाजारी के कारण बढ़ता है। यह सिलसिला सालों से चला आ रहा है। दूसरी तरफ सरकार ने खुद ही एसेंशियल कमोडिटी एक्ट में संशोधन करके कालाबाजारी करने वालों को कानूनी अधिकार दे दिया है, ऐेसे में दाम नहीं बढ़ेगा तो क्या होगा। 

आपको जानकार हैरानी होगी कि देश में हर साल कम से कम 1.5 करोड़ मीट्रिक टन प्याज बेची जाती है, जिसमें 10 से 20 मीट्रिक टन प्याज स्टोरेज के दौरान खराब हो जाती है। भारत में प्याज का कुल उत्पादन 2 करोड़ 25 लाख से 2 करोड़ 50 लाख मीट्रिक टन सालाना के बीच है। औसतन 35 लाख मीट्रिक टन प्याज एक्सपोर्ट की जाती है। 2019 में तो 32 हजार मिट्रिक टन प्याज सड़ गई थी। भारत में महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, बिहार, गुजरात और राजस्थान इसके बड़े उत्पादक प्रदेश हैं। 




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