प्राणवायु....... प्रकृति के महत्व को दर्शाती साहित्यकार आरती जायसवाल की यह कविता
प्राणवायु
प्राण-वायु और जल के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
विशाल पेड़ों के शवों पर।
प्राणवायु भरे हुए
पृथ्वी पर
जीवन का अमृत फैलाते थे
उगे हुए वो धरा की छाती पर धैर्य की भाँति
सृष्टि के सारे विष को मूक हो पी जाते थे।
उनकी जड़ें धरती के भीतर गहरे धँसकर
वहाँ की ऊष्मा उत्सर्जित करतीं
और वे धरा को विनाशकारी भूकम्प से बचाते थे
चलते थके,हारे जीव-जन्तु पथिक भी
उनके नीचे तनिक विश्राम कर
अपनी थकान उतारते थे
जीवन से मृत्यु तक वे सब के सब
अपना कर्तव्य भली-भाँति निभाते थे।
किन्तु
आह दुःखद
हमने उनकी वंश परम्परा को बढ़ाकर
उनका कृतज्ञ होने के स्थान पर
कृतघ्नों की भाँति
उन्हें दे दी अकाल मृत्यु
पूर्ण निर्दयता के साथ चला दी
आरियाँ और कुल्हाड़ियाँ
सुला दिया उन्हें सदा के लिए
मृत्यु की गोद में
चढ़ा दिया उन्हें अवैध कटान की बलि
उन्हें जो प्रत्येक प्राणी को प्राणवायु प्रदान करते थे
और चुन लिए अपने लिए अकाल मृत्यु के मार्ग
विशाल पेड़ों के शवों
के मध्य चौड़ी होती हुई सड़कें
उनपर काला धुआँ उगलते दौड़ते वाहनों की लम्बी-लम्बी कतारें
उजाड़ दिए बाग़-बग़ीचे
पेड़ों की लाशों के ढेर पर
बो दी ईंट-पत्थरों की बहुमन्जिला इमारतें
और कल-कारख़ाने
उनमें लगा दिए
दिन-रात विष उगलते विद्युत
उपकरण
निर्भर हो गए हम पूरी तरह कृत्रिमता पर
भूल गए उसी अनुपात में
वृक्षारोपण,
ठीक वैसे जैसे-
हाथ-पैर स्वयं ही काटकर
कृत्रिम अंगों का निर्माण और उपयोग।
प्राणवायु भी कृत्रिम होती जा रही है पल-प्रतिपल
अब भी न चेते तो
बहुत देर हो जायेगी
और हमें भोगने होंगे भयावह
दुष्परिणाम
हमारी कृतघ्नता के
अपने प्राणों का मोल चुका कर ।
दो अब जीवन दान दो
वृक्ष का रोपणकर
वृक्ष की रक्षाकर
उन्हें नहीं
स्वयं को स्वयं के वंशजों को।
आरती जायसवाल, साहित्यकार