निशब्द हूँ....मानवता के विकृृत होते स्वरूप को इंगित करती डा. अखिलेश चन्द्र की यह कविता
निशब्द हूँ (कविता)
मानव इतना निर्दयी
कैसे हो सकता है?
यह प्रश्न आज
एक बार पुनः
यक्ष प्रश्न की तरह
सामने खड़ा है
केरल की घटना
के साथ,पूँछता हुआ
तुमने ऐसा क्यूँ किया?
उत्तर में कोई जवाब
नहीं है ,निशब्द हूँ।
जब भी होती है
मानवता शर्मशार
किसी की बेबसी
का उड़ता है जब
मजाक,किसी के
साथ होता है
अमानवीय व्यवहार
दिल बैठ जाता है
आत्मा रोती है
मन कचोटता है
बारम्बार,आक्रोश से
भर जाता है,संवेदनशील
इंसान, जब सवाल
उठता है चहुँओर
फिर एक बार वो
कहता है ,निशब्द हूँ।
अभी 25 मई की
अमेरिका की घटना
जो अश्वेत के साथ
घटी,वो मानव ने
मानव के साथ की
बात दो पांव पर
चलने वाले इंसान
के बीच थी,पर
दो पाँव का एक पाँव
ही इंसान के गले पर
तब तक दबाया गया
जब तक एक की मौत
नही हो गयी,जल रहा है
अमेरिका,है घृणित घटना
सिहर जाता है इंसान
अंदर से जब भी कोई
पूँछता है यहाँ तो समझदार
के बीच की बात थी
तो उत्तर में कुछ
बोल नही पाता हूँ
जवाब में, निशब्द हूँ।
इंसान जा कहाँ
रहा है, कही दो
पाँव वाला चार पाँव
पर आतातायी है
कही दो पाँव वाला
दो पाँव वाले पर ही
आतातायी है ,क्या
इसीलिये गढ़ी गयी है
मानवता,इसीलिये हमने
इतनी शिक्षा पायी है
जब बनना ही था जानवर
तो क्यों सभ्यता का चादर
ओढ़े घूमते फिरते हो
इधर उधर जब अपने
से पूँछता हूँ क्या
इसलिये हमने पायी है
इतनी ऊँचाई और इतनी
गहरी संवेदना
उत्तर में पुनः
निशब्द हूँ।
डॉ0 अखिलेश चन्द्र
आजमगढ़