हिन्दी साहित्य का मेरुदण्ड है भक्ति साहित्य- प्रो. रमेश कुमार पाण्डेय
अपने कर्म और दायित्वों के प्रति रखें आस्था- प्रो. साकेत कुशवाहा
‘मध्यकालीन हिंदी साहित्य में शोध की संभावनाएं’ पर पांच दिवसीय वेबिनार का हुआ शुभारंभ
जनसंदेश न्यूज़
ईटानगर। राजीव गांधी विश्वविद्यालय, ईटानगर के हिंदी विभाग द्वारा सोमवार को पांच दिवसीय ‘शिक्षक विकास कार्यक्रम’ का शुभारंभ हुआ। ‘मध्यकालीन हिंदी साहित्य में शोध की संभावनाएं’ विषय पर आयोजित इस पांच दिवसीय ऑनलाइन आयोजन के उद्घाटन सत्र में विद्वतजनों ने अपने विचार प्रकट किये।
मुख्य अतिथि लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली के कुलपति प्रो. रमेश कुमार पांडेय ने कहा कि भक्ति भारत की आत्मा है और भक्ति साहित्य को हिंदी साहित्य का मेरुदंड माना जा सकता है। वेद, पुराण, रामायण, महाभारत आदि में वर्णित बातों को ही भक्तिकालीन कवियों द्वारा स्थापित करने की कोशिश हुई। संस्कृत में उपलब्ध ज्ञान को लोकभाषाओं के माध्यम से भक्त कवियों ने सर्वजनसुलभ कराया। उन्होंने कहा कि अपनी परंपरा को साथ लेकर चलने वाली बात फलदाई होती है. शोध के लिए स्वाध्याय परम आवश्यक है और विद्या के प्रति लालसा शोधार्थी होने की पहली शर्त है. प्रोफेसर पांडेय ने हिंदी के शोधकर्ताओं से अपनी भाषा को भी सशक्त और शुद्ध बनाने का आग्रह किया।
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कुलपति प्रो. साकेत कुशवाहा ने भक्ति साहित्य के संदर्भ में बात करते हुए उन्होंने कहा कि भक्ति में आस्था प्रमुख है और यदि हम यह आस्था अपने कर्म एवं दायित्व के प्रति भी रख सकें तो देश और समाज का बहुत भला कर सकते हैं। जो प्रक्रिया भीतर से किसी को सुख दे सके, वह भक्ति ही कहलाती है और भक्तिकालीन कवियों ने भी इसे परमार्थ से जोड़ा है। शोध के संबंध में बात करते हुए उन्होंने कहा कि शोध का उद्देश्य चाहे उपाधि पाना हो, चाहे स्वांतः सुख; उसमें सच्चाई का पुट और गहराई अवश्य होने चाहिए। उन्होंने संकीर्णता से बाहर निकलकर शोध का दायरा बढ़ाने की भी बात कही और कहा कि हमें स्वस्थ आलोचना से घबराना नहीं चाहिए और उसे सकारात्मक रूप में ग्रहण कर निरंतर आत्म-परिष्कार की दिशा में बढ़ते रहना चाहिए।
समकुलपति प्रो. अमिताव मित्रा ने हिन्दी विभाग को बधाई देने के साथ ही मध्यकालीन हिन्दी साहित्य को बहुत सम्भावनापूर्ण बताया जो केवल उत्तर भारत तक सीमित न रहकर सम्पूर्ण भारत में व्याप्त हुआ। उन्होंने तिरुवल्लवर, चौतन्य महाप्रभु नानकदेव कबीर, नामदेव, शंकरदेव आदि का नाम लेते हुए मध्यकालीन साहित्य पर होने वाले शोध कार्यों में सम्पूर्ण भारत के भक्ति साहित्य में तुलनात्मक अध्ययन की सम्भावना तलाशने का सुझााव दिया।
कुलसचिव प्रो. तोमा रिबा ने हिन्दी विभाग द्वारा विगत दो वर्षों में किये जाने वाले कार्यों की सराहना करते हुए विभाग के सदस्यों की एकजुटता तथा कार्य के प्रति समर्पण का उल्लेख किया और कहा कि कि यह एक ऐसा विभाग हे जो बात कम, शान्तिपूर्ण ढंग से काम अधिक करने में विश्वास रखता है। उन्होंने अरुणाचली लोक साहित्य को अधिकाधिक प्रकाश में लाने में हिन्दी विभाग से सहायता करने का आग्रह भी किया।
कार्यक्रम के संयोजक और भाषा संकायाध्यक्ष प्रो. ओकेन लेगो ने कहा कि मध्यकालीन साहित्य हिन्दी की एक बड़ी थाती है, जो प्रारम्भिक स्तर से लेकर विश्वविद्यालयी शिक्षा और शोध तक पाठ्यक्रमों का अनिवार्य भाग है। इस पर बहुत शोधकार्य हुए हैं और हो रहे हैं। इन शोधकार्यों की दिशा सही तथा स्वरूप स्पष्ट हो तथा कार्य सार्थक परिणाम देने वाला हो, इस उद्देश्य से इस कार्यक्रम का आयोजन किया गया है।
हिन्दी विभागाध्यक्ष डा.श्यामशंकर सिंह ने सभी का स्वागत किया और कबीर, जायसी, तुलसी, मीरा के काव्य से सन्दर्भ देते हुए कहा कि मध्यकालीन कवियों ने मानदण्ड स्थापित किये हैं जिनमें शोध की अपार सम्भावनाएं हैं। उद्घाटन-सत्र के अन्त में धन्यवाद-ज्ञापन डा.जोराम यालाम नाबाम ने किया।
उद्घाटन-सत्र के पश्चात् आज दो तकनीकी सत्र हुए। पूर्वाह्न 11.00 से 12.30 तक चले प्रथम सत्र में केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा के निदेशक प्रो. नन्दकिशोर पाण्डेय का व्याख्यान हुआ। उन्होंने बहुत विस्तार एवं व्यापकत्व के साथ मध्यकालीन हिन्दी साहित्य में शोध की सम्भावनाओं को उजागर किया। बहुत सी सूचनाएं एवं सन्दर्भ देकर उन्होंने कहा कि भक्तमाल ग्रन्थों, परचई साहित्य, वार्ता साहित्य, सर्वंगी साहित्य, विरुदावलियों आदि के अध्ययन के बिना भक्ति-साहित्य को पूरी तरह से नहीं समझा जा सकता। प्रो. ननदकिशोर पाण्डेय ने मध्यकाल में पट्टावलियों, वचनिकाओं, शिलांकित कृतियों, ख्यातों, टीकाओं, तिलकों, तुकात्मक गद्य, स्रोत्रों के गद्यानुवाद आदि के रूप में लिखे गये गद्य की भी कई विशेषताओं को उजागर करते हुए उसके अध्ययन की आवश्यकता पर जोर दिया।
दोपहर 2.30 से 4.00 बजे तक चले दूसरे सत्र के वक्ता उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ के कार्यकारी अध्यक्ष प्रो. सदानन्दप्रसाद गुप्त रहे । उन्होंने भक्ति-काव्य को जीवनानुभूति का काव्य बताते हुए कहा कि साहित्य को दर्शन, समाज और संस्कृति से अलग करके नहीं देख जा सकता। उन्होंने समाजिक सरोकार के बजाय आ. रामचन्द्र शुक्ल द्वारा प्रयुक्त लोकमंगल शब्द को अधिक उपयुक्त मानते हुए ऐतिहासिक बोध, पाठानुसन्धान, तुलनात्मक अध्ययन, सांस्कृतिक विमर्श स्वाधीन चेतना, गृहस्थ जीवन, राष्ट्रीय चेतना आदि दृष्टियों से मध्यकालीन हिन्दी साहित्य के अध्ययन का रास्ता सुझाया। अन्त में धन्यवाद-ज्ञापन सह-संयोजक डा.सत्यप्रकाश पाल ने दिया।
आयोजन में हिन्दी विभाग के सदस्यों डा.जमुना बीनी तादर, डा.विश्वजीत कुमार मिश्र, डा.राजीव रंजन प्रसाद तथा शोधार्थियों विजय कुमार, प्रियंका सिंह के साथ अंग्रेजी विभाग के डा.नारायण प्रचण्ड पिराजी तथा चन्दन कुमार पण्डा की भी सक्रिय उपस्थिति रही। आगामी चार दिनों में हिमाचल केन्द्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला के कुलपति प्रो. कुलदीपकुमार अग्निहोत्री, बाबा मस्तनाथ विश्वविद्यालय, रोहतक के कुलपति प्रो. रामसजन पाण्डेय, उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान, लखनऊ के कार्यकारी अध्यक्ष डा. राजनारायण शुक्ल, दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय की निदेशक प्रो. कुमुद शर्मा, इफलू, हैदराबाद से प्रो. एम. वेंकटेश्वर, विश्व भारती, शान्तिनिकेतन से प्रो. रामेश्वर मिश्र तथा दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. चन्दन कुमार श्रोताओं-दर्शकों को सम्बोधित करेंगे।