’ज़िन्दगी की टिकट पर घर जाने को बेबस’

 



आयुषी तिवारी
कोरोना महामारी के चलते हुए लॉकडाउन में शहर से प्रवासी मजदूरों का पलायन रुकने का नाम नहीं ले रहा है। रोजाना सैकड़ों की संख्या में मजदूर शहर के हाइवे से निकल रहे हैं।
लॉकडाउन का चौथा चरण शुरु हो गया है तब भी सड़कों पर मजदूरों के घर वापसी की लंबी कतारें जारी है। पलायन करते मजदूर अच्छी तरह जानते हैं कि हो सकता है वे गांव पहुंचने पर भी न बचे, पर अपनी मिट्टी से मिलने की चाह और उनके भूखे पेट की आवाज़ उन्हें विवश कर रही है। घर वापसी की इसी चाहत में अब तक सैकड़ों मजदूर रास्ते में दम तोड़ चुके हैं और हादसे का शिकार बन चुके हैं। इसी में कुछ लोगो ने इसे भी व्यवसाय का जरिया बना लिया है ,मदद करने के बजाय उनकी मजबूरी का फायदा उठा रहे हैं।
दिक्कत यह है कि इन मजदूरों की बेबसी को न समाज समझ रहा है और न सरकार। कहने को तो हर राज्य सरकार प्रवासी मजदूरों की वापसी के लिए बड़े दावे कर रही है, मजदूरों की वापसी के लिए नोडल अफसर तैनात किए जा रहे हैं लेकिन नतीजा वही बस बेबस तस्वीरें,और दिल दहलाने वाले हालात,कहीं न कहीं कम्युनिकेशन गैप भी इसका कारण है और हमारे वर्किंग सिस्टम में कुछ तो कमी है।
उत्तर प्रदेश के आगरा मॉडल की संक्रमण पर काबू पाये जाने की कोशिशों की खूब चर्चा हुई थी, लेकिन अब वहाँ भी लगातार कोरोना मरीजों की संख्या बढ़ रही सवाल तो ये उठता है आखिर चूक कहाँ हुई? मजदूर भी मजबूर है, न उनके पास साधन है और न पेट भरने को भोजन ,जो ठेकेदार उन्हें ले गए वे भी उन्हें उनके हाल पर छोड़ दियें हैं । कोई किराये के मकान खाली करा दिया ,तो किसी ने काम से निकाल दिया..। 
ठेकेदारों का कहना है कि सरकार को हमारी मदद करनी चाहिए हम कब तक उन्हें सहारा दे पाएंगे। कई लोग मजदूरों से पैसे ले के उन्हें घर भेजवाने की आशाएं दे रहें पर आश्चर्य की बात तो यह है कि आखि़र इतनी पाबंदियों के बाद भी कैसे वो एक शहर से दूसरे जगह चले जा रहे?
जहां एक तरफ प्रशासन लोगों के मदद के लिए तरह-तरह के इंतजाम कर रहा है, वहीं इन मजदूरों की आप बीती सुनकर ऐसा लग रहा है कि प्रशासन के द्वारा किए जा रहे कार्य मेें कुछ तो कमी रह गई है। सरकार ने घोषणा की 8 करोड़ प्रवासी मजदूरों को दो महीने मुफ्त राशन मिलेगा लेकिन ये तय करना उनको मिल रहा की नहीं किसकी ज़िम्मेदारी होगी?
हमारे देश के लोगो की विडम्बनाएं है कि वो इस विपदा में मदद का काम केवल सरकार का समझ रहे है। कुछ लोग पूरे जी-जान से लगे भी है पर कमाने वाले से ज्यादा खाने वाले हों और बढ़ते ही चले जायें तो कैसे चलेगा। सरकार से सवाल बेशक़ पूछा जाना चाहिए साथ ही हर नागरिक को भी अपनी तरफ़ से मदद करनी चाहिए और अगर हर एक नागरिक इस विपरीत परिस्थिति में आगे बढ़े तो न जाने कितने मजदूरों के दर्द  कम किये जा सकतें हैं।
जो घर हीं में घुसि रहै कदली सुपत सुडील
तो रहीम तिन ते भले पथ के अपत करील।


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